केरखेड़ी ही नाम है शायद उस गाँव का. एक बुढा किसान अपने एक बेटे के साथ रहता है .अब खेती के काम उससे नही होते.बेटे बहु को बहुत अखरने लग गया उसका बैठे बैठे रोटियाँ तोड़ना.लोक लाज का डर न होता तो कभी का बांह पकडकर बाहर निकाला होता.पर......गाँव में आज भी सामाजिक बंधन बड़े कडक हैं.
जात बाहर कर देना ,हुक्का पानी बंद कर देना भी इसमें शामिल है.
गलत जगह भी काम में ले लिए जाते हैं ये नियम कायदे पर.........कई बार बहुत काम भी आते हैं.
ये नही सोच सकते बुढापे में किसी बुजुर्ग का वृद्धाश्रम जाकर बाकी जीवन बिताने के बारे में .
शहरों में वृद्धाश्रम यानि ओल्ड एज होम खुले हैं गांवों में आज भी नही है ये.
उस दिन शायद कुछ ज्यादा ही तू तू मैं मैं हो गई थी बाप बेटे में. बेटा गुस्से में तो बाप दुःख से भरा था. कालजे की कोर को इसीलिए बड़ा किया था कि इस उम्र में रोटियों के लिए भी वो बेटे को भारी लगने लगेगा. एक पल के लिए सोचा कहीं चला जाऊँ, पर........ कहाँ.आस पास के गाँव या चित्तोड भीलवाडा के सिवा और कहीं गया भी तो न था.
लुगाई जल्दी चल बसी.बेटे को पीठ पर लादे लादे जहाँ तक सफर कर सकता की. खुद का घर भी वापस नही बसाया.
.................................
तभी जाने कहाँ से एक मुटियार (नौजवान) पास आकर खड़ा हो गया. 'बा! एक बलदा (बैल) की जोड़ी मोल लेनी है.आछा तगड़ा बलद मीली कईं ई गाम में ?"(अच्छे तगड़े बैल मिलेंगे क्या इस गाँव में?)
'ये बुढो बलद है इन्ने ले जा '-जाट का छोरा गुस्से में बोल पड़ा.
'राम राम ! कसी(कैसी) बातां करे भाया !! थारा बापू है?'
'हाँ'
'बाप ने बळद बोल रह्यो है. रे! म्हने पूछ माँ के पेट में हो और बाप मर ग्यो. चार बरस हो गया माँ भी चली गई. माथा पे हाथ फेरने वालो कोई नही रह्यो' बंजारे की आँखें छलक आई थी.
'तो तू ले जा '- जाट के छोरे की आवाज में गुस्सा तल्खी और चिढ़ थी.
' म्हने मुटियारपनों (जवानी) काट दियो इके (इसके) वास्ते.घर नही बसायो पाछो (वापस).घरवाली होती तो म्हारी या गत होती.... मौत भी नही आवे म्हने. बोझ बण गयो आज इप्पे (इस पर) रीस में भी कोई इसान (इस तरह) बोले? तुम ही देखो '-बंजारे की ओर भरी आँखों से देखकर बा ने बोला.
बैल खरीदना भूल गया बंजारा. समझाने लगा जाट के बेटे को. भीतर से बहु भी घूंघट में चिल्ला रही थी.
बंजारे ने बा को देखा.बोला- 'बा! बैठो मेरी गाडी पर. आज थां (आप)अपनों काम तो हाथ से कर रहिया हो, काले (कल) बिस्तर पकड़ लियो तो ये कांई सेवा करी थांकी (आपकी)?? ये ले पांच हजार रूपये कल ये मत कहना कि फीरी(फ्री) में ले ग्यो '
बा चल दिए.बेटा बहु देखते रहे.एक बार भी नही रोका.न पूछा 'किस गाँव ले जा रहे हो?"
जानवर को बेचते समय भी ले जाने वाले का अता पता पूछते हैं. उसके खाने पीने का ध्यान रखने का कहते हैं हम. कई कई बार कहते हैं. पर बुढा बा जानवर भी तो नही था ....नही पूछा.
अमल (अफीम) बोने का मौसम आया. जाट के छोरे के पैरों त्तले से जमीन खिसक गई.
पट्टा उसे नही बंजारे के नाम पर मिला था उसी जमीन पर अफीम बोने के लिए.
गाँव के मोतबीर लोगों को ले के पहले बंजारे का पता लगाया. फिर उसके घर जा पहुंचा. हट्टे कट्टे बंजारे से झगड़ने की हिम्मत नही जुटा सका.
हाथ पाँव जोड़े. सबने खूब समझाया. बंजारा भी अड गया.
'जमीन के लिए यहाँ थां (आप)सब आ गया. जब डोकरा बा ने एक एक रोटी के लिए ये रुला रह्यो थो(था) वदी (तब) कट्ठे (कहाँ) चला गया थां सब ?जानवर ने भी आँखियों (आँखों) के सामने भूखा मरता नही देखा अपण. ये तो बाप थो रे इको (इसका)....मनख ..मनख (मनुष्य) है रे यो (यह)'- बंजारे की आँखे और बोल आग उगल रहे थे.'
'ऐसा है कोर्ट में जाओ ,कचहरी में जाओ. थाणे में जाओ. मुझे किसी का डर नही.सब बा के साथ हैं. इतना क़ानून कायदा तो मुझे भी मालूम. तू जिस घर में रह रहा है न ! मैं न उसे खाली करवाऊँगा न गाय ढोरों के लिए चरनोट (चारागाह) और बाड़ा ही. यूँ बा ने सब म्हारे नाम कर दी है पर मैं तेरे जितना नीच कोणी '-बंजारे ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा.
मामला पुलिस तक गया.....और कोर्ट कचहरी तक भी.
इस बार पलड़ा बा का भारी था.
घर,परिवार अपनी इज्जत के नाम पर सब कुछ चुपचाप सहन कर लेने वाले बुजुर्गों में से एक आज विद्रोही हो गया था. नही चाहिए था उसे ऐसा बेटा.
'साब! ये म्हारो कुछ नही लागे. पर म्हने बाप से ज्यादा इज्जत दी बच्चा से ज्यादा म्हारी सेवा की. इसकी लाड़ी (बहु) बच्चा बच्ची 'बा बा ' करता नही थाके (थकते).मैं चुपचाप जाके म्हारा घर बार जमीन सब इके नाम कर दी. जदी (जब) माधु (बंजारा को एक नाम दे दूँ ) ने मालूम पड्यो (पड़ा) म्हारो लड्यो.की मैं इके नाम ये सब क्यों कर दियो? कलजुग में क्रिसन भगवान मिलिया म्हने (मिले मुझे)'- बा ने रोते हुए पुलिस वालों और गाँव वालों को कहा.
...................................और एक दिन बा के बेटा बहु आये .पैरों में पड़ गए. 'बा घर चालो. अब कदी (कभी) अस्यो (ऐसा) नही करूँ. माफ कर दो.'
'बाप के लिए आयो है या जमीन जायदाद के लिए आयो है?' बंजारा सांप की तरह फुन्फकारा.
'नही बाप के लिएईच आयो हूँ.गंगा माता की सोगंध '-जाट का छोरा,बहु आंसू बहा रहे थे.इस बार बच्चों को भी हथियार के रूप में आगे कर दिया.
बा नही पिघले. बंजारा पिघल गया. .
'ले जा बा को अमल भी तू ही बो. मैं बिना बताए कदी भी थारे घर आ जाऊंगो.गाँव में भी पतो लगाऊंगो.जो मालूम पड़ गई कि तुने या थारे घर में कोई ने भी बा को दुःख दिया... कोई कडवी बात भी बोल दी. तो....... तब न जमीन मिलेगी न बा. समझ ग्यो?'
'जमीन का कागज पत्तर ????' -छोरा बोला.
'बा के सौ बरस पूरे हो जाने के बाद तेरहवें दिन पूरे गाँव के सामने सब तुझे दे दूँगा. इस बीच मैं मर भी ग्यो तो म्हारी घर वाळी म्हारा छोरा छोरी थन्ने (तुझे)दे देगा.पूरा गाँव के सामने कह रीयो (रहा) हूँ बंजारा की जुबान है.'
मैं फिर एक अजूबा अपनी आँखों से देख रही थी.इस बार मेरे कृष्ण सीख देने आये थे बंजारा बनकर.....बा बनकर.
कैसी रही? क्या कहेंगे आप? ओल्ड एज होम्स की संख्याएँ घट सकती है न?????
जात बाहर कर देना ,हुक्का पानी बंद कर देना भी इसमें शामिल है.
गलत जगह भी काम में ले लिए जाते हैं ये नियम कायदे पर.........कई बार बहुत काम भी आते हैं.
ये नही सोच सकते बुढापे में किसी बुजुर्ग का वृद्धाश्रम जाकर बाकी जीवन बिताने के बारे में .
शहरों में वृद्धाश्रम यानि ओल्ड एज होम खुले हैं गांवों में आज भी नही है ये.
उस दिन शायद कुछ ज्यादा ही तू तू मैं मैं हो गई थी बाप बेटे में. बेटा गुस्से में तो बाप दुःख से भरा था. कालजे की कोर को इसीलिए बड़ा किया था कि इस उम्र में रोटियों के लिए भी वो बेटे को भारी लगने लगेगा. एक पल के लिए सोचा कहीं चला जाऊँ, पर........ कहाँ.आस पास के गाँव या चित्तोड भीलवाडा के सिवा और कहीं गया भी तो न था.
लुगाई जल्दी चल बसी.बेटे को पीठ पर लादे लादे जहाँ तक सफर कर सकता की. खुद का घर भी वापस नही बसाया.
.................................
तभी जाने कहाँ से एक मुटियार (नौजवान) पास आकर खड़ा हो गया. 'बा! एक बलदा (बैल) की जोड़ी मोल लेनी है.आछा तगड़ा बलद मीली कईं ई गाम में ?"(अच्छे तगड़े बैल मिलेंगे क्या इस गाँव में?)
'ये बुढो बलद है इन्ने ले जा '-जाट का छोरा गुस्से में बोल पड़ा.
'हाँ'
'बाप ने बळद बोल रह्यो है. रे! म्हने पूछ माँ के पेट में हो और बाप मर ग्यो. चार बरस हो गया माँ भी चली गई. माथा पे हाथ फेरने वालो कोई नही रह्यो' बंजारे की आँखें छलक आई थी.
'तो तू ले जा '- जाट के छोरे की आवाज में गुस्सा तल्खी और चिढ़ थी.
' म्हने मुटियारपनों (जवानी) काट दियो इके (इसके) वास्ते.घर नही बसायो पाछो (वापस).घरवाली होती तो म्हारी या गत होती.... मौत भी नही आवे म्हने. बोझ बण गयो आज इप्पे (इस पर) रीस में भी कोई इसान (इस तरह) बोले? तुम ही देखो '-बंजारे की ओर भरी आँखों से देखकर बा ने बोला.
बैल खरीदना भूल गया बंजारा. समझाने लगा जाट के बेटे को. भीतर से बहु भी घूंघट में चिल्ला रही थी.
बंजारे ने बा को देखा.बोला- 'बा! बैठो मेरी गाडी पर. आज थां (आप)अपनों काम तो हाथ से कर रहिया हो, काले (कल) बिस्तर पकड़ लियो तो ये कांई सेवा करी थांकी (आपकी)?? ये ले पांच हजार रूपये कल ये मत कहना कि फीरी(फ्री) में ले ग्यो '
बा चल दिए.बेटा बहु देखते रहे.एक बार भी नही रोका.न पूछा 'किस गाँव ले जा रहे हो?"
जानवर को बेचते समय भी ले जाने वाले का अता पता पूछते हैं. उसके खाने पीने का ध्यान रखने का कहते हैं हम. कई कई बार कहते हैं. पर बुढा बा जानवर भी तो नही था ....नही पूछा.
अमल (अफीम) बोने का मौसम आया. जाट के छोरे के पैरों त्तले से जमीन खिसक गई.
पट्टा उसे नही बंजारे के नाम पर मिला था उसी जमीन पर अफीम बोने के लिए.
गाँव के मोतबीर लोगों को ले के पहले बंजारे का पता लगाया. फिर उसके घर जा पहुंचा. हट्टे कट्टे बंजारे से झगड़ने की हिम्मत नही जुटा सका.
हाथ पाँव जोड़े. सबने खूब समझाया. बंजारा भी अड गया.
'जमीन के लिए यहाँ थां (आप)सब आ गया. जब डोकरा बा ने एक एक रोटी के लिए ये रुला रह्यो थो(था) वदी (तब) कट्ठे (कहाँ) चला गया थां सब ?जानवर ने भी आँखियों (आँखों) के सामने भूखा मरता नही देखा अपण. ये तो बाप थो रे इको (इसका)....मनख ..मनख (मनुष्य) है रे यो (यह)'- बंजारे की आँखे और बोल आग उगल रहे थे.'
'ऐसा है कोर्ट में जाओ ,कचहरी में जाओ. थाणे में जाओ. मुझे किसी का डर नही.सब बा के साथ हैं. इतना क़ानून कायदा तो मुझे भी मालूम. तू जिस घर में रह रहा है न ! मैं न उसे खाली करवाऊँगा न गाय ढोरों के लिए चरनोट (चारागाह) और बाड़ा ही. यूँ बा ने सब म्हारे नाम कर दी है पर मैं तेरे जितना नीच कोणी '-बंजारे ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा.
मामला पुलिस तक गया.....और कोर्ट कचहरी तक भी.
इस बार पलड़ा बा का भारी था.
घर,परिवार अपनी इज्जत के नाम पर सब कुछ चुपचाप सहन कर लेने वाले बुजुर्गों में से एक आज विद्रोही हो गया था. नही चाहिए था उसे ऐसा बेटा.
'साब! ये म्हारो कुछ नही लागे. पर म्हने बाप से ज्यादा इज्जत दी बच्चा से ज्यादा म्हारी सेवा की. इसकी लाड़ी (बहु) बच्चा बच्ची 'बा बा ' करता नही थाके (थकते).मैं चुपचाप जाके म्हारा घर बार जमीन सब इके नाम कर दी. जदी (जब) माधु (बंजारा को एक नाम दे दूँ ) ने मालूम पड्यो (पड़ा) म्हारो लड्यो.की मैं इके नाम ये सब क्यों कर दियो? कलजुग में क्रिसन भगवान मिलिया म्हने (मिले मुझे)'- बा ने रोते हुए पुलिस वालों और गाँव वालों को कहा.
...................................और एक दिन बा के बेटा बहु आये .पैरों में पड़ गए. 'बा घर चालो. अब कदी (कभी) अस्यो (ऐसा) नही करूँ. माफ कर दो.'
'बाप के लिए आयो है या जमीन जायदाद के लिए आयो है?' बंजारा सांप की तरह फुन्फकारा.
'नही बाप के लिएईच आयो हूँ.गंगा माता की सोगंध '-जाट का छोरा,बहु आंसू बहा रहे थे.इस बार बच्चों को भी हथियार के रूप में आगे कर दिया.
बा नही पिघले. बंजारा पिघल गया. .
'ले जा बा को अमल भी तू ही बो. मैं बिना बताए कदी भी थारे घर आ जाऊंगो.गाँव में भी पतो लगाऊंगो.जो मालूम पड़ गई कि तुने या थारे घर में कोई ने भी बा को दुःख दिया... कोई कडवी बात भी बोल दी. तो....... तब न जमीन मिलेगी न बा. समझ ग्यो?'
'जमीन का कागज पत्तर ????' -छोरा बोला.
'बा के सौ बरस पूरे हो जाने के बाद तेरहवें दिन पूरे गाँव के सामने सब तुझे दे दूँगा. इस बीच मैं मर भी ग्यो तो म्हारी घर वाळी म्हारा छोरा छोरी थन्ने (तुझे)दे देगा.पूरा गाँव के सामने कह रीयो (रहा) हूँ बंजारा की जुबान है.'
मैं फिर एक अजूबा अपनी आँखों से देख रही थी.इस बार मेरे कृष्ण सीख देने आये थे बंजारा बनकर.....बा बनकर.
कैसी रही? क्या कहेंगे आप? ओल्ड एज होम्स की संख्याएँ घट सकती है न?????
वाह ताई वाह अदभुत आलेख
ReplyDeleteबहुत खूबसुरत लेख जी ...बधाई !!!!
ReplyDeleteबहुत खूबसुरत लेख जी ...बधाई !!!!
ReplyDeleteकाश ... काश ...
ReplyDeleteaansu nikal aaye live stori aapki kalam me jadu hai
ReplyDeleteबहुत खूबसुरत लेख जी ...बधाई !!!!
ReplyDeleteकहाणी तो चोखी मांडी है, बुढापा माए खेती या जायदाद बूंढा के नाम कोनी होवै तो सेवा कुण करे? जद ही कही जाए हे बुढापा रै लिए बचाय के राखणो चाहिए…… फ़ेर ओल्ड एज होम की जरुरत कोनी पड़े।
ReplyDeleteबहुत खूब !
ReplyDeleteइस आइडिये से तो ओल्ड एज होम्स का कांसेप्ट ही खतरे में पड़ जाएगा! ऐसी सीख मिलनी ही चाहिए !
समाज में दानव भले ही बढे हैं मगर मानवता आज भी है और विभिन्न रूप रंगों में प्रगट होती रहती है -अच्छी कहानी!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावपूर्ण कहानी है कहानी का अंत सुखद लगा ... आभार
ReplyDeleteहोता है - भगवान नरसी मेहता की हुंडी भी छुड़ाते हैं और नालायक बेटे को अक़्ल भी बाँटते हैं।
ReplyDeleteसाब! ये म्हारो कुछ नही लागे. पर म्हने बाप से ज्यादा इज्जत दी बच्चा से ज्यादा म्हारी सेवा की. इसकी लाड़ी (बहु) बच्चा बच्ची 'बा बा ' करता नही थाके (थकते).मैं चुपचाप जाके म्हारा घर बार जमीन सब इके नाम कर दी. जदी (जब) माधु (बंजारा को एक नाम दे दूँ ) ने मालूम पड्यो (पड़ा) म्हारो लड्यो.की मैं इके नाम ये सब क्यों कर दियो? कलजुग में क्रिसन भगवान मिलिया म्हने (मिले मुझे)'- बा ने रोते हुए पुलिस वालों और गाँव वालों को कहा.
ReplyDeletebahut bhavpurn lekh..........badhai
समवेदनाओं पर किक मार कर जगाती हुई सार्थक कहानी...
ReplyDeletebahut bahut bahut achha likhaa hai
ReplyDeleteबहना बहुत-बहुत स्नेह !
ReplyDeleteमेरी आँख के आसूं तेरे इन एहसासों पर टिप्पणी के रूप में .....
तेरे स्नेह और प्यार भरे जज्बे को प्रणाम ....
वीरा !
जीजी सा, बडी चोखी वारता कही,बापड़ा पुख्ताओं री ओईज रामकहाणी है। बा मोटियारी रा दिन बळद ज्यूं बेटा रै वास्ते जुत नै खप ग्या!! अबै बूढ़ो बळद ही ज है। माधु सरीखा मोटियारां के कारण ही थोडी बहुत सम्वेदना जी रही है। नहीत्तर बुजर्ग तो रोटी नै ओसियाळा वै ग्या है।
ReplyDeleteइंदु जी यह खेल तो मेरे मां बाप के साथ हो चुका हे, ओर करने वाला मेरे मां बाप का लाडला बेटा ओर उस की बहू थी, यानि मेरा छोटा भाई.... ओर जिस ज्यादाद के लिये उन्होने मेरे मां बाप को एक एक रोटी के लिये तरसाया, जिस का पता मुझे अब धीरे धीरे लग रहा हे, कई सबूत मिले हे जिन के जरिये मै भाई ओर जेल मे चक्की पिसवा सकता हुं, लेकिन छोटा जान कर माफ़ कर रहा हुं.... लेकिन एक दिन भुगते गे यह दोनो.....
ReplyDeleteइतना मर्मस्पर्शी .... शब्दों ने अबोला कर दिया है !!!
ReplyDeleteअरे बुआ, क्या बात है, घणा मजो आ वि गयो
ReplyDeleteऐसे बंजारे कहाँ होते हैं सच में? शहर में कम से कम ओल्ड एज होम में एक छत तो मिल जाती है, गाँव में तो ये भी नहीं, बीमारी भूख और उस पर छत भी नहीं... जाने किसके किस्मत में क्या बदा कौन जाने. कोई बंजारा मिले कि पूत सपूत रहे या कि कपूत हो जाए.
ReplyDelete"balad bechna hai???"sunder bhaw liye dill ko choo lene wali ek behad umda rochak laghu katha hai ,khani ki rochakta aant tak bani rahti hai,khani ka ant bahoot hi sukhad hai,sunder sandesh de rha hai,indu ji behad khoosurat lagu katha likhne ke liye badhai ho,
ReplyDeleteइंदु जी , सादर प्रणाम
ReplyDeleteआप किसी भी विषय पर बहुत बढ़िया प्रस्तुतिकरण करती हैं !
आप घटना को बेहद रोचक और गंभीर बनाकर पाठको को चिंतन करने के लिए विवश कर देती हैं... लेकिन हमेशा की तरह मेरी एक शिकायत है आप थोडा लिखने में कंजूसी कर देती हैं...
कृपया विस्तार से लिखा करें क्यूँ के आपकी रचनाओ को पढने वाले आपके ब्लॉग पे विशेष समय निकल कर पढ़ते हैं ऐसा मेरा मानना है..
धन्यवाद
आपका अपना
<3
इंदु जी , सादर प्रणाम
ReplyDeleteआप किसी भी विषय पर बहुत बढ़िया प्रस्तुतिकरण करती हैं !
आप घटना को बेहद रोचक और गंभीर बनाकर पाठको को चिंतन करने के लिए विवश कर देती हैं... लेकिन हमेशा की तरह मेरी एक शिकायत है आप थोडा लिखने में कंजूसी कर देती हैं...
कृपया विस्तार से लिखा करें क्यूँ के आपकी रचनाओ को पढने वाले आपके ब्लॉग पे विशेष समय निकल कर पढ़ते हैं ऐसा मेरा मानना है..
धन्यवाद
आपका अपना
<3
पलक झपकाए बिना आद्योपांत पढ़ गया. बुआ क्या लिखा है आपने. कहानी में सच्चाई है या सच्चाई की कहानी है. सब गुत्थम गुथा है.
ReplyDeleteबुआ, कहाँ से ये सब उकेरना सीखा है...
हमेशा आंदोलित और कुछ और सोचने पर विवश कर देती है आपकी लेखनी...
कहां हो बेटा?
Deleteमुझे तो भाषा, शैली बहुत भली लगी. खेतों का मालिक होते हुए बा को इतना सहना नहीं चाहिए था.
ReplyDeleteघुघूतीबासूती
Jwalant samasya ko le kar sarthak likha hai..Man ki bhaavon ki udvignata ubalne mein safal ye lekh sarahna ka adhikari hai.......DADA
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की फदर्स डे स्पेशल बुलेटिन कहीं पापा को कहना न पड़े,"मैं हार गया" - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeletesamvednaon se paripurn...
ReplyDeleteandar tak andolit karti hui..
shandaaar..
वाह सार्थक विचारणीय और प्रभावशाली आलेख
ReplyDeleteसादर