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Saturday 3 September 2011

उसकी पोटली


उसकी पोटली


पहला दृश्य

बात यही कोई सैंतीस अडतीस साल पुरानी
नवयुवक ...नही  किशोर. गाँव से शहर पढ़ने के लिए जाने को तैयार....
एक रिश्तेदार को अपने बाबूजी से कहते सुना-' काहे पढ़ने भेज रहे हैं,गाँव के दुसरे लडके गए.शराब,कबाब सब सीख लिए.गैर जात में बियाह भी कर लिए.भोले भाले को भेज रहे हैं  ऊ भी बिगड कर धुल हो जायेगा'
'नही. हमारा बेटा ऐसा नही है, वो ऐसा कभी नही करेगा,हम जानते हैं उसे '- पिता ने जवाब दिया.
जरूरी सामान के साथ वो ले आया एक पोटली जिसमे उसके बाबूजी का विश्वास था.पोटली जैसे उसकी चमड़ी बन कर चिपक गई उससे.

दूसरा  दृश्य

 रात तीन  बजे.उस ने दरवाजा खटखटाया.दोस्त की अम्मा  ने दरवाजा खोला,चिल्लाई-'इतनी रात गए कहाँ से आ रहे हो? वो भी सायकिल चला के आये हो ? भीतर आओ. इतना ठंडा पड रहा है.कुछ सऊर है कि नही? '
वो नजर झुकाए चुप्पी साधे खड़ा था. घबराया सा.चिमनी की रौशनी में उसके माथे पर चुह्चुहाई पसीने के बूंदों में उसका चेहरा दमक रहा था.'बैठ जाओ बबुआ ! अभी उठाते हैं रामदीन को.कित्ते बजे निकले अपने घर से ?साईकिल पर तो दो तीन घंटा लगा होगा न तुम्हे? दो साल से गाँव छोड़ कर हिंया पढ़ रहे हो.ऐसे तो कभी नही आये ?बिराह्मिन के बेटे हो.ऊ भी हमारे गुरूजी के....ऐसे बखत में???  बबुआ हमको डराए दिए हो'- बिट्टन चाची बोली.
'चाची ......'- बोल नही निकल रहे थे उसके गले से. आँखों से आंसू फूट पड़े.
'हाय दैया ! क्या हुआ बचुआ ? ' खटिया पर बैठाते हुए बिट्टन बोली. 'नही रे बबुआ.रो नही.हमे बताओ बात का भई ?'
'चाची! ओ है न हमारी मकान-मालकिन ... .रात हमारे बिस्तर पर आके....'
'काहे अंदर कुण्डी चढाय के नही सोये थे का?
'नही,, खम्बे की रोसनी में पढते हैं.खटिया बाहर चबूतरे पर डाल के सो जाते हैं. हम तो रोज ऐसा ही करते हैं .'
'का बोले बच्चा अब तुम्हे! कलिजुग में काहे पैदा हुए ?'

तीसरा  दृश्य

उसके हाथ में एक बच्चा एक कागज थमा गया.
खोला .पढा. आवाज लगाई-'सुमन! ये चिट्ठी तुम लिखे हो?'
'हाँ. क्यों?' -सुमन प्यारी सी शर्मीली लड़की.
'दो तमाचा देंगे न,मुंह तोड़ देंगे तुम्हारा.हमे क्या समझे हो तुम? यहाँ बस यही सब करने आये हैं? पढ़ लिख कर इंजीनियर बनना है हमे. अब ऐसा किया न तुम्हारे बाबूजी को लेजा कर दे देंगे ये चिट्ठियां.'
पोटली खून बन कर उसकी रगों में दौड़ने लगी थी.

 दृश्य चार

शानदार  पांच सितारा होटलका एक कमरा
'सर.............'- वो बोली.
'थेंक्स मेडम !बट....सॉरी...सॉरी...' उन्होने दरवाजे तक 'उसे' छोड़ा.
लड़की के आँखों में आश्चर्य भी था और शायद.....खिल्ली का भाव भी. नही...नही..उसे आश्चर्य ज्यादा था.
'सर! आपके साथ वो पास वाले रूम में जो ऑफिसर रुके हैं न ........' लड़की ने बात पूरी की -  ' कल रात मेरी फ्रेंड को कहते हैं 'मेरी बेटियों की आँखें मुझे देखती है....और देखिये फ्री में मिली 'फेसिलिटी' को भी.....'
पोटली उनकी साँसों में तब्दील हो गई थी.


दृश्य  पांच
'सर!  मेरे पति को प्रमोशन ..... आप जो चाहे......'
'अपने पति के लिए आप इस हद तक.......नत-मस्तक हूँ मैं आपके त्याग के आगे. किन्तु प्रमोशन... अब तो बिलकुल नही.विजय को अपनी काबिलियत और मेहनत पर यकीन करना चाहिए.आप मेरी बेटी ,छोटी बहन जैसी है...मैं आपका सम्मान करता हूँ .बस एक बात कहूँगा अब कभी आपके पति 'ऐसी' कोई बात आपके सामने रखे. दो झापट लगाना उसे. अपने आपको सीढी मत बनाइए '
पोटली उनकी आत्मा का अंश बन चुकी थी.बहुत बडी हो चुकी थी पोटली.अब उसमे माँ,पत्नी,उनके अपने बच्चो का विश्वास भरा था.
'आपको बोझ नही लगा इसका कभी?' मैंने पूछा.
'वो मेरी ताकत बन गया,उसकी रौशनी हर जगह मेरे साथ रही.और अब तो.....आपका विश्वास भी इसमें रखा है.पोटली को बहुत संभाल कर रखता हूँ.'- बच्चों सी मासूम मुस्कान शायद उसी पोटली से निकली है.

और  आगे......

'बाबु! अगर कहीं भगवान होगा तो वो जरूर तुम-सा ही होगा. मुझे जब भी भगवान की जरूरत पड़ी.वो नही आया. तुम आये.मुझे तो जुबान भी नही हिलानी पडती है.तुम कैसे जान जाते हो कि मैं परेशानी में हूँ,दुखी हूँ.'
'........................बुद्धू!  ओ मेरा बच्चा! एकदम बुद्धू है तू ! ' और अच्छा लगता है मुझे एकदम बुद्धू बच्चा बनकर रहना उनके सामने .'- 'उसने' भी अपने मन की बात मुझे बताई.
'दीदी! मैं बात बाद में करती हूँ,रोती पहले हूँ.वो शांत भाव से मेरी बात सुनते हैं फिर 'गाइड' करते हैं.सब 'उन जैसे क्यों नही है?'
'पोटली तो सबको मिलती है.पर कोई  साथ ले के ही नही निकलता.तो कोई रास्ते में छोड़ भागता है.कोई उसमे से थोडा सा  निकाल लेता है जरूरत भर.और उन जैसे.....धीरे धीरे'उस' पोटली में ही तब्दील हो जाते हैं'......

एक  काल्पनिक पात्र 'राजू गाइड' जीवन भर उस पिताम्बर को अपने से अलग नही कर सका.पीताम्बर गाँव वालों का विश्वास था. राजू 'महात्मा' बन गया. और 'ये' ?????? एक सत्य,सजीव  पात्र ....जिसे मैं जानती हूँ और आश्चर्यचकित हूँ.

पुरुष भी उच्च-चरित्र के होते हैं. पर मैंने नही देखा कभी ऐसा कोई इंसान. भूख....खाना है ही नही....भूखा रहना...मजबूरी.
भूख...सामने खाना ....और इनकार,उस और देखना नही.
अंतर है न दोनों में? आप क्या कहेंगे?






29 comments:


राज भाटिय़ा ने कहा…
ऎसी ही एक पोटली हम भी साथ लाये थे, जिसे पिता जी ओर मां ने बांध कर मुझे उस दिन दी जब पहली बार मे जहाज मे बेठा था, ओर वो पोटली आज भी मेरे पास उन की अमानत हे, बहुत सुंदर जी , धन्यवाद
वाणी गीत ने कहा…
होते हैं ऐसे इंसान भी ... पोटली उनकी संभली ही रहती है हमेशा ..
ललित शर्मा ने कहा…
वन गमन के समय लक्ष्मण ने भगवान राम से पूछा कि- "वह कौन मनुष्य है जिसका मन कंचन और कामिनी को देखकर नहीं डोलता? तब भगवान ने जवाब दिया-" जिस मनुष्य की माता धार्मिक और पिता सद्चरित्र पुरुषार्थी हो,उसका मन कभी भी कंचन और कामिनी को देखकर नहीं डोल सकता।" ऐसे ही कुछ लोग हैं इस दुनिया में,जिनके आत्मबल पर यह जग कायम है। आभार
पद्म सिंह ने कहा…
"..........."
ajit gupta ने कहा…
आज तो यह पोटली ही बोझ लगने लगी है। चरित्र की परिभाषा ही बदल गयी है। कैसे भी मिले बस जीवन के सारे सुख मिलने चाहिए। नहीं मिल रहे हैं तो छीन लो, कैसे भी चाहे हिंसा ही क्‍यों ना करनी पड़े? अच्‍छी है आपकी रचना पोटली।
डॉ टी एस दराल ने कहा…
बहुत प्रेरणात्मक कहानी है । लेकिन आजकल तो पोटली देने वाले मात पिता ही नहीं रहे। भगवान ही मालिक है आजकल के बच्चों का । पाश्चात्य प्रभाव बर्बाद कर रहा है । कल ही डॉक्टर्स साथियों का एक मधुर मिलन था । एक डॉक्टर की २२ साल की बेटी ने कहा , मुझे डॉ --- पर क्रश है । सामने दोनों डॉक्टर्स बैठे थे । सुनकर हम तो सकते में आ गए ।
Mukesh Kumar Sinha ने कहा…
indu di!!! jindagi kitni bhi badle....insaaan to milenge hi...beshak adhiktar insaan ke andar ka janwar jhalak uthta hai....par insaaan to hain hi....:)aur kuchh insaaan jo ek dum 100% khalish hote hain aapke kathanak ki tarah...lekin unki sankhya 100 me nahi 1000000 me ek ho gayee hai...
बी एस पाबला ने कहा…
आजकल पोटली के अंदर जाने क्या कुछ रहता है। शुक्र है हमने संभाल रखी है अब तक पुरानी वाली
kase kahun?by kavita. ने कहा…
induji aaj potali dene vale mata pita bhi samay ke sath potli ko chhodane ki salah de dalte hai....par aise logo se hi duniya jeene layak hai....bahut achchhi rachna ..
अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…
समय के साथ दृश्य बदलते गए.. मूल्य बदलते गए...
Manoj K ने कहा…
खूब.. यह पोटली सब लेकर चलें तो अच्छा, पुरुष या स्त्री. उसके पास सब की पोटलियाँ हैं..जब ऊपर जायेंगे तब क्या होगा?? अच्छा है इसी धरती पर इस पोटली को ढो लें..!!
सुशील बाकलीवाल ने कहा…
भूख...सामने खाना ....और इनकार,उस और देखना नही. अच्छे संस्कार, अच्छी सीख.
इंदु पुरी गोस्वामी ने कहा…
@पाबला भैया वो तो हम आपसे एक दो बार बात करने पर ही जां गये थे कि ....पोटली भी है और उसमे बेशकीमती दौलत भी. हा हा हा
इंदु पुरी गोस्वामी ने कहा…
लोरी अली ने मेल किया और कुछ यूँ बताया. वाकई आंटी, बात बहुत हद तक अभिभूत कर देने वाली है, पर सच कहूं, आज तक एसा बस अफ्सानो में ही सुना है गावँ से शहर आकर पढ़ने वाली पीढी में, मै खुद भी शामिल हूँ (साथ में इसी एक नन्ही पोटली मेरे भी है, लड़की जो हूँ) किन्तु मेरे जितनी सम्माननीय दोस्त( पुरुष) हैं, वे मुझे छीलते हुए कहते हैं, समाज, दुनिंया आदि में रहने के लिए पोटली संभालो, पर मुफ्त या कम मेहनत से कुछ मिले तो तुरंत ही अपना लो मेरी पोटली उनके लिए कायरता है, मेरा ड्रेस-अप उनके लिए गवारुपन है, किन्तु उनकी भीरूता,(लिव-इन रिलेशन शिप ) उनकी आधुनिकता है, क्या कहूं!!! पोटली के साथ खुश हूँ' @लोरी लोरी! अपनी पोटली पर गर्व करो.जो हो जैसी हो बहुत प्यारी हो.तुम्हारा पहनावा भले ही किसी को गंवारूपन लगे,लगने दो.खुद से पूछते रहना और भीतर की आवाज सुनना.तथाकथित 'आधुनक लोगों को जीने दो जिस अंदाज़ मे जिए.तुम्हारी पोटली तुम्हारी पहचान है....तुम्हारी आत्मा और व्यक्तित्त्व की ख़ूबसूरती है.
इंदु पुरी गोस्वामी ने कहा…
डॉ टी एस दराल सर ने लिखा -'इंदु जी! अभी पढ़ी । बहुत बढ़िया लिखा है । लेकिन अफ़सोस ऐसे व्यक्ति आजकल अत्यधिक अल्पसंख्यक रह गए हैं । अभी क्रिसमस पर टर्की खाने के बारे में पढ़ रहा था । सोचता हूँ इंसान जिन्दा प्राणियों को कैसे मार कर खा जाता है । क्रिसमस की शुभकामनायें ।
Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…
जै श्री कृष्णा आदरणीया दीदी इंदुपुरी जी !  आप इतना प्रभावशली लेखन करती हैं , मानो घटनाओं को हम पाठक भी साक्षात् घटित होते हुए देख रहे हैं । गद्य लेखन इतना सुरुचिपूर्ण ! आभार ! बधाई ! वाह वाह ! पर्याप्त समर्थ शब्द नहीं हैं , बस, नमन स्वीकार करें … ۩۩۞۩۩۞۩۩۞۩۩۞۩۩۞۩۩۞۩۩۞۩۩۞۩۩۞۩۩۞۩۩۞۩۩۞۩۩ ~*~नव वर्ष २०११ के लिए हार्दिक मंगलकामनाएं !~*~ ۩۩۞۩۩۞۩۩۞۩۩۞۩۩۞۩۩۞۩۩۞۩۩۞۩۩۞۩۩۞۩۩۞۩۩۞۩۩ शुभकामनाओं सहित - राजेन्द्र स्वर्णकार
POOJA... ने कहा…
क्या कहूँ??? कटाक्ष, साक्ष्य या फ़िर कहानी... हर किसी ने आजकल पोटली छिपा कर रख्खी है शायद ऐसी ही कोई अमानत रख्खी है...
आशीष/ ਆਸ਼ੀਸ਼ / ASHISH ने कहा…
माँ सा, गुड मोर्निंग! अभी-अभी उठा हूँ. जो लिंक आपने ईमेल किया था, उससे ब्लॉग नहीं मिला. अभी अपना ब्लॉग देखा, तो पाया के नयी पोस्ट छपी है. सो आ गया. बात सन २००४ की है शायद. दिल्ली यूनीवर्सिटी में पढ़ता था. अकेला किराये पे रहता था. एक रात रेडियो सुनते-सुनते आँख लग गयी, दरवाज़ा खुला रह गया. पता नहीं कब एक आहट होने पर आँख खुली. अँधेरे में से एक फीमेल आवाज़ आयी, फाईव हंड्रेड. मैंने उठके दरवाज़ा बंद कर लिया. आपकी पोस्ट पढ़ी तो ये बात याद आ गयी. अपनी माँ को तो बता ही रखी है, सोचा आपको भी बताता चलूँ. चलिए अब ये लीजिये, क्रिसमस की बधाई: आई एम जिंगल, बट यू आर नोट सिंगल! यू ओनली टेल मी, हाउ डु वी मिन्गल? हा हा हा.... आप सभी को प्यार. आशीष ले के जा रहा हूँ, आशीष --- नौकरी इज़ नौकरी!!!
इंदु पुरी गोस्वामी ने कहा…
'एक फीमेल आवाज़ आयी, फाईव हंड्रेड. मैंने उठके दरवाज़ा बंद कर लिया.' तुम इसी लिए लाड आता है मुझे. ये जो पोटली है न 'इंसानों' के पास ही होती है. शायद सब मुझे इस जमाने की ना माने और पिछड़े विचारों की भी कहे मगर...'पोटली वालो' से दुनिया चल रही है बाबा! पोटली वालों के सामने अच्छे अच्छे नही टिक पाते.एक अलग ही ओज ,तेज होता है उनके व्यक्तित्त्व में.
निर्झर'नीर ने कहा…
ललित शर्मा ji ne bahut sahi kaha hai ..isse behtar mujhe kuch nahi laga aapke sarthak lekh ke liye
अन्तर सोहिल ने कहा…
'पोटली तो सबको मिलती है.पर कोई साथ ले के ही नही निकलता.तो कोई रास्ते में छोड़ भागता है.कोई उसमे से थोडा सा निकाल लेता है जरूरत भर. ये पोटली मुझे भी मिली थी, लेकिन पता नहीं कब थोडा थोडा बोझा घटाने के चक्कर में पूरी पोटली फेंक आया हूँ और अब पछताता हूँ। प्रणाम
जेन्नी शबनम ने कहा…
indu ji, aapki lekhan shaily bahut kamaal hai, mantramugdh ho padh jaati hun. bahut badhai aapko.
इंदु पुरी गोस्वामी ने कहा…
@अंतर सोहिल जी ! मैं सच और सच बोलने वालों का सम्मान करती हूँ.बेहद खुशी हो रही है कि आप में सच बोलने की हिम्मत है.पोटली आपसे कहीं नही जा सकती.मिल जायेगी...अंतर में ही है कहीं. सच बोलने वाले दोस्त तुझे सलाम. @जेनी शबनम जी! प्यार.कितने दिनों बाद आई हैं आप!पर अच्छा लगा आपका आना 'शब' नही 'सहर' हो. थेंक्स
राजीव तनेजा ने कहा…
जब अपने पिताजी को देखता हूँ तो आपकी कहानी के इस नायक की बहुत सी खूबियां उनमें पाता हूँ... हम तो उनके मुकाबले रत्ती भर या छटांक बराबर भी नहीं... प्रेरक प्रसंग...
Arvind Mishra ने कहा…
कहानी है अब तो यह !
: केवल राम : ने कहा…
आदरणीय इंदु पूरी गोस्वामी जी सादर प्रणाम ...स्वीकार करें इस पोटली पर बहुत सारी टिप्पणियाँ कर दी गयी हैं, अब मैं क्या कहूँ कुछ बचा ही नहीं कि कुछ कहूँ ......बस यह कहना चाहूँगा कि आपका प्रस्तुतीकरण गजब का है ...एक लाइन से पढना शुरू किया था पता ही नहीं चला कब अंतिम पंक्ति आ गयी ...बस ...आनंद ही आनंद ..............बहुत- बहुत शुक्रिया आने वाले ....नव वर्ष 2011 की हार्दिक शुभकामनायें ..स्वीकार करें .... केवल राम
RAJEEV KUMAR KULSHRESTHA ने कहा…
आपको नववर्ष 2011 मंगलमय हो । सुन्दर शब्दों की बेहतरीन शैली । भावाव्यक्ति का अनूठा अन्दाज । बेहतरीन एवं प्रशंसनीय प्रस्तुति । हिन्दी को ऐसे ही सृजन की उम्मीद । धन्यवाद.... satguru-satykikhoj.blogspot.com
Rahul Singh ने कहा…
जीवन के नजारे, कभी बदरंग, कभी सतरंगी.
Dorothy ने कहा…
सुंदर रचना. आभार. अनगिन आशीषों के आलोकवृ्त में तय हो सफ़र इस नए बरस का प्रभु के अनुग्रह के परिमल से सुवासित हो हर पल जीवन का मंगलमय कल्याणकारी नव वर्ष करे आशीष वृ्ष्टि सुख समृद्धि शांति उल्लास की आप पर और आपके प्रियजनो पर. आप को सपरिवार नव वर्ष २०११ की ढेरों शुभकामनाएं. सादर, डोरोथी.

9 comments:

  1. काश ऐसी पोटली हर कोई ले के आए अपने अपने घर से और उसको माने भी ... छूती है दिल को ये पोस्ट आपकी ...

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  2. इन्दूजी आपके लेखन की कायल हूँ..हर रचना ध्यान से पढ़ती हूँ....दिगम्बरजी...ऐसी पोटली सबके पास है...बस देते और लेते वक्त विश्वास कुछ डगमगा जाता है..वह अटूट हो तो सब कुशल होता है...फिर वक्त वक्त पर कुछ बदलाव तो प्रकृति का नियम है...

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  3. हृदयस्पर्शी है आपका आलेख, धन्यवाद!

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  4. "'पोटली तो सबको मिलती है.पर कोई साथ ले के ही नही निकलता.तो कोई रास्ते में छोड़ भागता है.कोई उसमे से थोडा सा निकाल लेता है जरूरत भर.और उन जैसे.....धीरे धीरे'उस' पोटली में ही तब्दील हो जाते हैं'......"
    ....
    बहुत ही प्रेरक कहानी या सत्य..अंतस को झकझोर देती है. कई बार सोचते हैं कि क्यों अब तक अपने सर पर उठाये हुए हैं इस पोटली का बोझ, लेकिन क्या करें जब इतनी उम्र उठाया है तो इससे इतना मोह हो गया है कि अब इसे छोड़ भी तो नहीं सकते. इस पोटली ने जीवन भर कठिनाइयों से लडने की शक्ति दी, अब इसे कैसे छोड़ दें.
    लेकिन अब बच्चे इस पोटली का बोझ अपने साथ ले जाने को कहाँ तैयार हैं? हां, कुछ पोटली का सामान सुविधानुसार ब्रीफकेस में जरूर ले गये हैं.

    आपकी लेखनी को नमन जो इतना गहरा जीवन दर्शन इतने प्रभावी ढंग से अंकित कर देती है. आभार

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  5. itne comment ke bad ab koi naye tarike ka comment nahi mil raha hai bas lajbab kah sakta hu dhanyavad shik ke ye anmolmoti hame dene ke liye

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  6. पुरुष भी उच्च-चरित्र के होते हैं. पर मैंने नही देखा कभी ऐसा कोई इंसान. भूख....खाना है ही नही....भूखा रहना...मजबूरी.
    भूख...सामने खाना ....और इनकार,उस और देखना नही.

    bahut achchi bat kahi hai aapne...aise log ab shayad puri duniya me ekad bach gaye ho to hi achcha...aapki bat dil ko chu gai induji..

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  7. Meri maa ki di hui potli.. hai mere paas..
    ab tou meri Rooh ban gyi hai..
    Bas chahti hu ki apni beti ko de paau.. or vo usse sambhaal paye..
    Thanks Di.. Potli yaad dilvane ke liye..
    kiuki hoti sabke paas hai.. par log usko bhul jaate hain.. ya kho dete hain is zidagi ke lambe safar mein..

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