'ये क्या जगह है दोस्तों ,ये कौन सा दयार है '
जो भी हो 'हद-ए-निगाह तक यहाँ गुबार ही गुबार नही है '
यह इलाहबाद रेलवे स्टेशन है ,वहां का प्लेट फॉर्म,वहां की एक सड़क है .
वो शहर जो मेरी आत्मा में बसता है, सपनों में आता है, उदास होती हूँ तो माथे पर हाथ फेरता है.
अरे ! एकदम पगली लगती है 'ये', अगर कहूँ राजनीतिज्ञों,साहित्यकारों,तीन -तीन नदियों के संगम वाले इस शहर के अल्फ्रेड पार्क में मुझे अंग्रेजो की गोलियों की आवाजे स्पष्ट सुनाई देती है, मैं लहूलुहान आजाद को देखती हूँ , उनके खून से लाल हुई मिट्टी की नमी को आज भी अपनी अंगुलियों से महसूस कर लेती हूँ ,
पागलपन ही लगेगा न ?
मगर जब आप किसी से आत्मिक,भावनात्मक रूप से जुड़ जाते है तब.....
मेरी जन्म भूमि है, मेरे पापा की कर्म भूमि- एयर फोर्स में थे, मम्मी शादी के जस्ट बाद कानपुर, उसके बाद इलाहाबाद आ के रही, बचपन और बाद में युवावस्था का कुछ समय भी मेरा यहाँ बीता .
धीरे धीरे इलाहबाद मेरे जीवन का एक अहम हिस्सा बन कर त्वचा की तरह मुझसे चिपक गया.
लम्बे अरसे बाद बडे बेटे अभिषेक के ससुराल रांची से आते समय मैंने 'इनसे' पूछा -
''इलाहबाद आएगा क्या ?''
''हाँ ! मगर आधी रात गए आएगा, तुम सो जाओ, मैं जगा दूंगा ''
मगर मैं ....जागी रही, इन्हें नींद लग गई तो ...? इलाहाबाद निकल जाएगा .
देर रात मुझे जगाया-''सुनो! 'तुम्हारा' इलाहबाद आ गया .''
मैं लेटी रही ...कुछ नहीं बोली ....बर्थ से उठ कर 'गोस्वामीजी' पास आये -'' रो रही हो ?......चलो उठो, प्लेट फॉर्म पर चल कर सभी चाय,कोफी लेंगे''
टीटू,ऋतू,अप्पू,प्रीटी हम सब नीचे उतर आए . बहुत कुछ बदल गया था फिर भी दुसरे शहरों की तुलना में यह स्टेशन इतना नही बदला था. चाय वाले से मैंने पूछा -''भईया ! यहाँ प्लेटफोर्म पर ही( शायद )जमीन पर लेटे हनुमानजी की मूर्ति थी न कहीं ? ''
''हाँ! अब भी है, संगम के उधर, यहाँ तो प्लेटफार् म पर मज़ार है ,बिटिया ! पहले भी कभी आई हो बिटिया ?''
''कई साल पहले आई थी ....''
''अब तो अलाहाबाद बहुत बदल गया है,बिटिया !.''
मैंने कोई जवाब नही दिया ....पूरा बदल भी जाए तो भी .......कोई देख पाता, ...पर मैंने देखे वहां ...अपने पापा के क़दमों के निशान, मम्मी की प्लेटफोर्म को छूती साड़ी की कोरें और एक छोटी सी बच्ची के छोटे छोटे कदमों की छापें .......
''ट्रेन रवाना होने वाली है, चलो '' इन्होने कहा या बच्चों में से किसी ने, याद नही .
अपने कोच में आ कर बैठ गई ,पर अकेली नहीं थी मेरे साथ थे पापा,मेरी युवती मम्मी, एक छोटी सी बच्ची
आज भी मुझी में रहते हैं ..मेरे आखिरी समय तक रहेंगे सब ...मेरे साथ ....
aapne...apne or allahabad k rishte ko bahut achhi tarah bataya hai.......kafi kuchh sikhne ko mila humein
ReplyDeleteआपकी इन अनमोल यादों का सफर यूं ही चलता रहे। पढ़ते वक़्त लगा जैसे मैं भी आपके साथ हूँ।
ReplyDeleteसादर
बहुत बढ़िया रहा यह संस्मरण!
ReplyDeleteहर लमहों में सबसे प्यारा बचपन ही होता है। जहां बचपन या कोशोरावस्था के दिन बीते हैं वहां की यादें तो सबसे अनमोल होती हैं। आपके अतीत का यह शब्दचित्र हमें भी इलाहाबाद तो नहीं मगरअपने गांव व खेत खलिहानों की याद दिला गया।
ReplyDeleteकल 15/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
इलाहाबाद की मधुर-स्मृतियों ने मेरी भी यादें ताज़ा कर दी !थोड़ी दूर पर ही तो अपन का गाँव है...!
ReplyDeleteसुंदर संस्मरण!
ReplyDeleteइस उम्र में बचपन की यादें ...जिन्दगी की बची-खुची जमा-पूंजी होती है ...जो सबसे ज्यादा प्यारी होती है ,,,क्योकि बस यही हमारी होती है|
ReplyDeleteइसे थामे रखो ......
खुश रहो!
यही होता है, हम चलते-चलते दूर निकल आते हैं और मन कहीं अटका ही रह जाता है।
ReplyDeleteदीदी आप हंसती हो हा हा हा हा एसिच हु में और ऐसे संस्मरण लिख कर हमें रुला देती हो आँखों में आंसुओं की वजह से की बोर्ड भी नहीं दिख रहा हे मुझे तो!
ReplyDeletedidi aap bahut achchha likhti he hame aapki tarah apni bhavnaye vyakt karni nahi aati aap se sahayati ki darkar he mene bhi gopal bharti naam se blag banaya he par abhi bilkul khali he ha ha ha ab soch raha hu usme kya bharu aap mera marg darshan keejiye!
ReplyDeleteBachpan ka anubhavo ka sansmaran kaise ho ga isaka vismaran .....
ReplyDeleteकुछ सुनहरी यादें कुछ मीठे सपने जो इलाहबाद में तो नहीं देखे और न ही ऐसे लम्हे वहां बिताये लेकिन इलाहाबाद से सम्बंधित जरूर हैं सभी याद आ गए
ReplyDeleteइन्दूजी दिल छोटा न कीजिये , प्लेटफॉर्म ही नहीं पूरा घर है आपका इलाहाबाद में....मैं वहीँ रहती हूँ ...आइये पूरा शहर घुमा दूँगी ...और जीभरकर ..यहाँ की आबो हवा का लुत्फ़ उठाइएगा .......और उन सभी यादों को दोबारा जी लीजियेगा जो यहाँ की मिटटी से जुडी ..आज भी आप में कहीं वाबस्ता हैं .......
ReplyDeleteसुंदर संस्मरण.......
ReplyDeleteDeepak Shukla commented on your link.
ReplyDeleteDeepak wrote: "Hum to saal main teen maheene Allahabad main bitate hain...har doosre teesre saal....koi rishte dari nahin, koi purana swapn nahin...hai to bas hawa main kuchh aisa ki Allahabad ka jaadu hamesha sar chadhkar bolta hai....Dharmshala ka takhat ho ya Hotel ka AC kamra, Sangam ki naav ho ya Ganga ka bahav, Civil line ke Hanuman ji, ya kile ke pass vishram karte hanuman ji, High Court parisar main ashaon ko dhoondhte filon se pate log....Allahabad main aisa kuchh hai jo hamesha man ko chhoota raha hai....shayad pichhle janm ka koi naata raha ho....!!"
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allahabad ek shahar nhi puri sanskriti hai banaras ki galiyo ki mat deta loknath delhi ki sadko ko piche chodta civil lains aapne wo likha jo aapne mahsus kiya
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