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Thursday 13 October 2011

मैंने भी की थी चोरी

'आया है मुझे फिर याद वो ज़ालिम गुजरा ज़माना बचपन का,
हाय रे अकेले छोड़ के जाना और न आना बचपन का '


इलाहाबाद की बात चली तो फिर कुछ और भी याद आ गया.
  और...... बहुत दिनों बाद महफूज़ का बचपन में चोरी करने की घटना का ज़िक्र दुबारा पढा. अनायास ही ये सब  मुझे अपने बचपन में खींच ले गये और याद आई एक घटना.
सुनेंगे ?
कितनी बड़ी थी? क्या उम्र थी? याद नही.
घटना ज्यों की त्यों याद आ गई मतलब सात आठ या उससे थोड़ी बड़ी ....ऐसी ही कोई उम्र रही होगी मेरी
ईलाहाबाद में कुछ फ्रेंड्स थे जिनसे लड़ना झगड़ना,साथ साथ खेलना दिन भर चलता रहता था .
लो, उनके नाम भी धीरे धीरे  याद आने लगे सविता दीदी-यूँ बहुत बड़ी नही थी पर मम्मी ने सिखाया था एक दिन भी बड़ी है यानि 'दीदी' है.
तो सविता दीदी , उनकी छोटी बहन अनीता उर्फ़ ओनी  लालचंद महाजन चाचा की बिटिया आशा , उषा, सुमेर सिंह चाचा के बेटे विक्रम और भागीरथ दादा,बिट्टन दीदी,गोपालन चाचा का बेटा जिसका नाम अभी  याद ही नही  आ रहा सबसे छोटा भी था हममे और उसकी आँखें बहुत बड़ी बड़ी और सुंदर थी एकदम हिरनी जैसी (ये अब लगता है ,तब तो इतनी अक्ल ही नही थी कि कैसी आँखे है ?) और मैं अपने पापा का चाँद ,सूरज,पूरा ब्रह्मांड.
पर शरारती,गालियाँ देने में उस्ताद .
पापा को मेरे मुंह से गालियाँ सुनना जाने क्यों पसंद था ? नही मालूम .
शायद चार भाइयो के बाद गंगा मैया से मनौती मांगने पर ये 'तौहफा'  ये 'सेम्पल' उन्हें मिला था ,
सो भाईसाहब  अपन कई गन्दी बातें भी सीख चुके थे इस उम्र में आने आने तक .
सब खेलते . कभी पास के पोखर  में भी उतर जाते और मछलियाँ पकड़ने की कोशिश करते ,कभी बाजरे के खेत से बाजरे की बालिया तोड़ कर खाते ,गले में चुभती थू थू करके थूक आते.
 पर शरारते वो सारी जो आम तौर पर बच्चे करते है
तो बात चल रही थी चोरी की.
 एक दिन लालचंद चाचा के यही सब मिल कर खेल रहे थे .
क्या? वो याद नही ,पर बाहर  चाची बैठी थी उनके सामने हम सभी खेल रहे थे.
अचानक चाची ने ऑर्डर दिया क्योंकि हम थे छोटो में नीचे से दुसरे नम्बर के , सो काम का आदेश हमें ही ज्यादा मिलता था .आदेश मिला -''सोना! ए बिटिया! तनिक एक गिलास पानी ले आओ तो भीतर से,कंठ  सुखाय रहा है''
भीतर गए थे पानी लेने ,देखा एक पैसे का एक सिक्का(ताम्बे का चलता था तब) ,और पांच पैसे का एक सिक्का पड़ा था वहीं घड़े के पास.
सो हमने लुकाय लिया. चाची को गिलास पकडाया और बिना किसी को कुछ बताये घर भाग आये और वहीँ कमरे में टाँगे फैला कर बैठ गए.
 लगे अपने उन पैसों से खेलने .
अभी चोरी के पैसो को मन भर देखा भी नही.
 पूरा आनंद लिया भी नही लिया था  कि मम्मीजी पधार गए.
''पैसे ?  पैसे से खेल रही है ?  कहाँ से आये तेरे पास ? किसने दिए ? '' एक साथ इतने प्रश्न  दाग दिए.
हम थे कि एकदम चुप.
शायद अचानक आये इस तूफान का सामना करने को पहले से तैयार ही नही थे या इतनी जल्दी पकड़े जायेंगे इसकी उम्मीद नही थी.
 '' मम्मी ये तो...मम्मी ये तो.....'' सच बोलने  में सोचना नही पड़ता,यहाँ तो तगड़े झूठ की जरुरत थी   
'' कहाँ से लाई ? ''  फिर एक फायर हुआ .
 ''चोरी की ? अभी महाजन के यहाँ खेल रही थी,  यूँ बुलाओ तो दस घंटे आती नही है, आज... ?   सारे बच्चे वहीँ खेल रहे हैं अभी भी. चुरा के लाई है चाची के यहाँ से ? ''
तभी पापा आ गए जिन्होंने अंदर कमरे में ही सब सुन लिया था शायद , पर  जिनकी  नजर में मैं दुनिया की सबसे अच्छी बेटी थी, जो कोई भी गलत काम तो कर ही नही सकती .
बोले -''क्यों डांट रही हो बच्ची को ? मेरा लाडला बेटा है ये तो चोरी कर ही नही सकता .''
अब अपने आंसू लगे लुढकने पापा के पीछे जा कर खड़ी हो गई और वही  से मम्मी की ओर देखा , बोली -'' मम्मी! मुझे मारोगे ?''
'' नही, सच बोल देगी तो नही मारूंगी  वरना तेरा बाप भी नही बचा पायेगा तुझे ,खाल खींच  दूंगी ''
अब पापा की अनुपस्थिति में माताजी खाल खीच दे तो ?.....तो बचाएगा कौन ?  (हमे वो माँ नही खाल खींचने वाली ज्यादा लग रही थी उस समय )बस यही सोच कर झट जवाब दे दिया ''लालचंद महाजन चाचा के यहाँ से. पर चोरी थोड़े ही की है, पड़े थे .खेलने के लिए लाई हूँ ''
''छिनाल,नीच बड़ी हो के डकैत बनेगी ?अभी जा के दे के आ,और कान पकड़ के माफी माँगना और ये भी  कहना चाची गलती हो गई अब नही करुँगी,माफ़ कर दो मैंने ये पैसे आपके यहाँ से उठाये थे '' माताजी ने आगे और जोड़ा
''वरना घर में मत आना ,आज सडक पर ही सोना,भूख लगे तो मांग कर खा लेना वो भिखारिन मांगती है न वैसे ही ''
बालमन इतना मासूम सब दृश्य  आँखों के सामने तैर गए ...सडक पर रात .... फिर भीख ...बाप रे
पापा देखो तो चुप. न हंसे न मुस्कराए.
हमेशा  बचाने वाला आज एकदम चुप.
अपने तो उपर आसमान और नीचे बस धरती ही बची  थी.
रोती हुई घर से निकली. चाची के घर का दरवाजा खुला था.मेरा सौभाग्य बच्चा भी एक नही था वहां उस समय.
बाहर से ही छः पैसे अंदर फैंके और पलट कर भागते हुए चिल्लाई - चाची! आपके पैसे, माफ़ कर दो''
आवाज सुन कर चाची जरुर बाहर आई होगी.
 पर अपन तो जिन्दगी में पहली और आखिरी बार इतना स्पीड से भागे होंगे
सो घर भाग आये और कई दिनों तक चाची के सामने गए ही नही .
उस वक्त दुनिया की सबसे बुरी,गंदी, दुष्ट माँ हमारी ही थी हमारी नजर में.
 पापा भी अच्छे नही लग रहे थे.
पर.....पर आज सोचती हूँ माँ की सख्ती में भी बच्चे का सुखद भविष्य ही होता है.
और अपने बच्चों में मैंने वही सब देने की कोशिश की.
मेरे पापा,मेरी मम्मी सचमुच एक अच्छे पेरेंट्स थे. वे अब नही हैं पर .....मुझ से अलग नही
कल रात सपने में आई थी मम्मी और आज..... वो मेरे पास आ  बैठी हैं ....

23 comments:

  1. YE SAHI KAHA MAA AAPNE MATA PITA KI DAAT ME BHI PYAR HOTA HAI
    MAA KI DAAT SE BACCHE KA BHAVISHYA BANTA HAI...VIPIN SINGH PATEL 9628965501

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  2. उमर सात की हो या साठ की हो,आदत नहीं बदलनी चाहिए !

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  3. अब मैं क्या कहूँ? बोलने बैठूंगा तो पुलिंदा ही खुल जायेगा

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  4. संस्मरण अच्छा लगा। शिक्षा सही दिशा मे इससे मिलती है।
    यदि समय हो तो मेरे संस्मरण 'विद्रोही स्व-स्वर मे'
    देखने का कष्ट कीजिएगा।

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  5. हा हा हा ... अगर उस दिन माँ नही डांटती ...
    तो आज "छुटकी" फूलन देवी होती..???
    यादें कैसी भी हों याद करनी चाहिए ! मन को सुकून देती हैं|
    खुश रहो !

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  6. हा हा हा! क्या ज़माना था, क्या लोग थे। बच्चे तो बच्चे ही रहेंगे।

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  7. बहुत सुंदर और रोचक...बच्चे तो बच्चे ही होते हैं. माता पिता की डाट की कीमत तो बड़े हो कर ही समझ पाते हैं.

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  9. बचपन की यही खट्टी-मीठी यादे आज भी चेहरे पर मुस्कान भर देती है....

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  10. अच्छी यादें हैं ...बचपन की जो हैं.....हमारी हमारे पैरेंट्स के लिए सोंच उम्र के साथ बदलती रहती है ....

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  11. माँ की सख्ती में भी बच्चे का सुखद भविष्य ही होता है. .सुंदर प्रस्तुति.....

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  12. मां पापा की सख्‍ती के कारण खास परिस्थितियों में सच बोलना भी मुश्किल हो जाता है .. झूठ बोलना तो मुश्किल है ही .. पर डांट में बच्‍चों का कल्‍याण छुपा होता है !!

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  13. माँ से बड़ी अध्यापिका कौन ?

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  14. प्रतिस्पर्धा के दौर / बंटवारे की आशंकाओं के बीच / और खुद वंचित रह जाने के अहसास तले , छिपा कर किसी वस्तु पे अधिकार जमा लेना क्या सच में चोरी है ?
    जबकि वो उम्र उचित अनुचित के निर्णय की ही नहीं थी ! वर्ना मां जो निर्णय लेने के औचित्य को समझा रही हैं दुष्ट नज़र क्यों आतीं ?

    नहीं जानता क्यों पर मै चोरी शब्द की समीक्षा का इच्छुक हूं !

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  15. इंदु दीदी ...आपके ब्लॉग पर मेरा कोई कमेन्ट नहीं हो पता हैं कभी भी ......
    आज भी आपकी पोस्ट पढ़ी ...और अतीत की यादों में खो गई ...मुझे लगता हैं कि ऐसी नादानी बचपन में हर कोई करता हैं ...माँ पापा और वक्त उन्हें सब सीखा देते हैं ...

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  16. आंटी प्यारी!!!
    आपकी पोस्ट की तरह गज़ब का ख़ूबसूरत बचपन रहा होगा आपका!!!
    आपको लगता है, अम्मा हम लोगों की भी ऐसी ही है, अरे आज भी छोटी छोटी बातों पर रिमांड
    लेती रहती है यार!!! जानती हैं आप!!! बचपन में हम इसको "बखिया उधेड़ना कहते थे."
    अम्मा आज भी कभी कभी बखिये ज़रूर उधेड्ती है, मगर......वो लफ्ज़ "छि...ना......" में तो आपने सारी की सारी अम्मियों के साथ ही इन्साफ कर डाला है
    मज़ा आ गया पढ़ कर.... " माँ ! तुझे सलाम "

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  17. "maine bhi ki thi chori"dad deni hogi aapki sunder soch ki,yeh sansmran bhi behd shandar aur rochak hai,"maa ki sakhti me bhi bachhe ka sukhad bhvishya hota hai"kitni umda soch hai aapki,aapke is behad umda sansmran se aajkal ke bachon ko seekh leni chahia,agar maa yaan bap kabhi dant te hai to unki bhlai ke liye dant te hai,sunder sansamran likhne ke liye badhai indu ji,

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  18. अक्सर ऐसा होता है
    मन के भीतर पनपती सुंदर और सच्ची अनुभूति
    पिता को नमन
    सादर

    आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
    पापा ---------



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