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Thursday 1 September 2011

रिश्तों के नाम


रिश्तों के नाम
बहुत अरसा तो नहीं हुआ उस बात को
जब घर आने पर ताई चाची का
भाई होता था हम सभी का मामा
और बहिन होती थी
पूरे खानदान की ही नही
पूरे मोहल्ले और गाँव की मौसी,
कहाँ सिमट कर रह गए सारे रिश्ते?
तुम्हारी नज़र में मैं रह गई सिर्फ एक नारी देह
दुनिया बदल गयी, पर मुझे
आज भी प्रतीक्षा है उस दिन की
जब लौट आएगी रिश्तों की वो ही खूबसूरती
गंवार हूँ ?
पर मुझे आज भी छू जाते
है वो पल जब 'वो' ला कर माथे पर
ओढा देते थे माँ के, ओढ़नी
'गाँव की बहिन बेटी' के रिश्ते से
भीतर तक भीग जाती थी माँ
चाहती हूँ मैं भी जीना वो ही पल ...
पर अब, डरा देता है मुझे भीतर तक
अखबार के कोने में छपा एक छोटा - सा समाचार
'नन्ही बच्ची से बलात्कार'
और छिपा लेना चाहती हूँ
उसे ही नहीं
दुनिया की सारी बेटियों को
अपने में ,
पूछती हूँ खुद से
बदलाव के नाम पर क्या
यही माँगा था हमने?
डरी सहमी बेटियाँ भी पूछती है हमसे
कैसे खेल लेती थी माँ
तुम या नानी
रात देर तक कभी अकेले
कभी अपनी सब सखियों सहेलियों बच्चों के साथ
नीम के तले ?
इंदु पुरी गोस्वामी

12 comments:

  1. कभी कभी कुछ भाव गहरे तक मन को छू जाते हैं आपके इन भावों से अंर्तमन भीग गया...

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  2. sach aaj ki duniya mein sare riste badal gaye hai ......sarthak bhav

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  3. सचमुच इंदुजी ! जो रिश्तों के ‘मूल’ तक जाने को बेचैन हो वही तो ‘मूल्य’ हैं..‘रिश्तों के मूल्य’ को हम कीमत समझतें हैं पर उन भावनाओं के ‘मूल’ यानी एसथेटिक्स तक नहीं जाते..क्या सही प्रश्न उठाया है आपने और कितनी पीड़ा के साथ ।
    बधाइयां आपको।

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  4. इंदु जी !
    खूबसूरत चित्र ...खूबसूरत प्रस्तुति...
    सुन्दर कविता..
    बेहद कोमल सुंदर रचना और सुंदर भाव !

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  5. इंदु जी इस प्रश्न ने वाकई नींद उड़ा रखी है जो आपने शब्दों को सुंदरता से गूंथ कर प्रस्तुत किया है

    आपका परिचय मेरी रचनाओं पर टिप्पणियां सभी इतनी आकर्षक हैं कि मज़ा आ गया ईश्वर आपकी भावुकता और बिन्दासपने को यूँ ही बरकत दे आमीन!!!

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  6. पूछती हूँ खुद से
    बदलाव के नाम पर क्या
    यही माँगा था हमने?

    ....बस यही बात...

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  7. सुन्दर चित्र के साथ आपने बहुत हृदयस्पर्षी रचना प्रस्तुत की है!

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  8. सोचने को विवश करती मर्मस्पर्शी रचना

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  9. रिश्ते अब बहुत कुछ
    वैसे नहीं रहे,
    हवा कुछ ऐसी चली
    लोग तुम जैसे नहीं रहे !!

    मर्म को छूती-छीलती कविता....!

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  10. बहुत ही संवेदनशील ... गहरे तक जाती है बच्ची की पुकार .. कैसे खेल लेती थी तुम देर रात तक माँ ... बदलते समय ने बदलते माहोल ने सबसे ज्यादा असर रिश्तों और मानवीय सरोकारों पर ही डाला है ...

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  11. हृदयस्पर्शी रचना, दुखद स्थिति है यह।

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