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Monday 19 March 2012

वो भयानक.........

मैं फिर आ गई. कुछ बतियाने अपने अनुभव शेअर करने.
बज़ पर आज गजेन्द्र बिष्ट जी के विचार पढे -
'मुझे ऐसा लगता है कि कुछ समाचार TV चैनलों ने सारे अंधविश्वासों को बढ़ावा
देने व जन-जन में फैलाने की कसम खा रखी है। सनसनी फैलाने व अंधविश्वासों को
बढ़ावा देने में IndiaTV तो नम्बर 1 पर दिखता है।'
सच है खूब बढ़ावा देते हैं ये चेनल्स इन सब बातों को,बिना ये सोचे कि इन
कार्यक्रमों को अशिक्षित वर्ग और मासूम बच्चे भी देखते हैं.उनके दिमाग पर क्या
असर पडेगा?
मैं नही जानती कि भूत प्रेतों का कोई अस्तित्व है भी या नही?क्योंकि मैंने तो
आज तक भूत नही देखा.पहली पोस्टिंग से लेके पिछली पोस्टिंग तक मेरा
स्थानान्तरण जहाँ भी हुआ,मुझे श्मशान घाट के समीप से या बीच से ही गुजरना पड़ता
था.
कई बार टीचर्स ने,गाँव वालों ने टोंका भी कि बारह बजे दिन में आप यहाँ से मत
निकला करिये.
पर ....मैं रोज अपनी गाडी से वहीं से गुजरती थी.ईश्वर से बड़ा कौन हो सकता है?
एक भूत यानि जो बीत चुका है. जा चुका है, उसके अस्तित्व की कल्पना से क्या
डरना और क्यों डरना?
एक बार स्कूल जाने पर बच्चे चिल्लाने लगे.
एक छोटे बच्चे ऩे कहा -' मेडम! उस पेड़ के उपर भूत है.'
'किसने बताया तुम्हे?'
'मेडम! सुथारों का राजू भैया बोल रहा था'
'राजू! तुमने भूत देखा?' मैंने पूछा.
' नही,वो तो......और गाँव वाले भी कहते हैं '-राजू ऩे जवाब दिया.
'ठीक है मैं जा कर आती हूँ .मैंने आज तक भूत नही देखा, देखूं तो कैसा होता है'
और मैं पेड़ के पास चली गई. चूँकि पेड़ स्कूल से इतना ही दूर था कि बच्चों को
अपनी कक्षा-कक्ष से भी साफ़ दिखाई देता था. मुझे मालूम था बच्चे एक बार डर गये
तो स्कूल आना बंद कर देंगे. इसलिए मैं वहां गई तने का सहारा ले के थोड़ी देर
बैठी और बच्चों को वहीं से हाथ हिला कर 'टा-टा' किया.
आ के मैंने टीचर्स को कहा-' चलिए, आप भी घनी छांव के नीचे सचमुच अच्छा लग रहा
है जब टीचर्स साथ आने लगी तो मैंने कहा -'मेरे शेर बेटे जो जो भी हैं और वो
मेरे साथ आना चाहे तो आ जाये. जो डरते है वो मेरे बच्चे हो ही नही सकते,वे सब
यहीं रहे.'
'राजू ! चलेगा मेरे साथ? मैंने राजू की ओर मुड़ कर देखते हुए उस से पूछा.
और.........कई बच्चे साथ हो लिए. पेड़ के नीचे जा कर मैंने कहा -'एक बार देख
लो तुम भी, फिर आज यहीं खेलेंगे. खाना भी यहीं खायेंगे. ऑफिस से
फ़ुटबाल,गेंदें,रिंग्स ले आओ. हम सभी खेलेंगे.'
दूर से हमें खेलता देख और मस्ती करते देख बाकि बच्चे भी आ गये यानि स्कूल
खाली. अब मैंने उन सब बच्चों से पूछा -'बताओ ! भूत कहाँ है?'
एक बच्चे ऩे कहा-' मेडम! वो तो अमावस की रात को या दिन में बारह बजे दिखता
है.'
'ओ.के. मैं बारह बजे वापस आऊंगी'
और मैं बारह बजते ही फिर पेड़ के नीचे पहुँच गई. धीरे धीरे बच्चे आने लगे
मैंने उन्हें रोका -'नही, तुम मत आओ. तुम डरते हो, स्कूल में पढ़ते हो, हर बात
पढ़ते हो, पेड़ पौधे,गांधीजी,नेहरूजी,कल्पना चावला,मीरा,कृष्ण सबके लेसन है ना
हमारी बुक्स में. भूत होते तो भूत का लेसन नही होता क्या ? किसी की भी कही कोई
भी सच्ची झूठी बात मान लेते हो. अच्छे बच्चे कब बनोगे,ये बताओ ? '
........................पर बच्चे अपने डर से उबर चुके थे. अब उसी पेड़ पर
झूला डाल रखा है और सब उस पर झूलते हैं गाँव के लोग भी.

२.
कुछ माह पहले की ही बात हैं मेरे परिवार के एक मेम्बर ऩे बताया कि -कुछ सालों
पहले अर्ली मोर्निंग जब वे घुमने जा रहे थे तो उन्हें 'ऐसा' आभास हुआ.
ऐसी बातें 'सुनने' पर मुझे आज भी डर तो लगता है सच्ची. मुझे मालूम था कि वो
मुझे जान बुझ कर छेड़ रहे हैं. पर जिस गम्भीरता से उन्होंने बताया कि -'सी-टाइप
क्वार्टर से मन्दिर की सीढ़ियों तक एक भयानक- सी दिखने वाली औरत मेरे पीछे पीछे
चलती रही थी. मैं घर लौट गया और कुछ दिन मोर्निंग वोक पर नही निकला.'
चूँकि मैं हमेशा सुबह घुमने जाती ही हूँ.
नियमानुसार उठी ब्रश वगैरह करके ट्रेक सूट, शूज़ पहने. पर उनकी बात याद आत़े
ही सोफे पर बैठ गई. धडकन बढ़ गई, माथे पर पसीना छलछला आया कडाके की ठंड में
भी मेरे माथे पर.
जाऊं ना जाऊं ? क्या करूं? जाने की हिम्मत ही नही हो रही थी, बस सोचे जा रही
थी.
तभी 'अपनी' बहु प्रिटी कमरे से बाहर निकली और गले लगने के बाद बोली-' मम्मी!
आज आप जा नही रहे? डर गये ना अंकल की बात से? '

' हाँ ! पहली बार मेरे रोंगटे से खड़े हो रहे हैं. कभी से तैयार हो के बैठी
हूं पर.......क्या करूं?' -मैंने प्रिटी के सामने अपने भयभीत होने को
स्वीकारा.
'आज रहने दो,मम्मी'
'और कल ?' मैने पूछा
' नही,मैं जरूर जाऊंगी आज डर गई तो फिर घर से कभी नही निकल पाऊंगी.'
अपना आइ-पोड स्टार्ट किया और मैं निकल कर सीधे सी-टाइप क्वार्टर्स की उसी गली
में गई 'जहाँ ' मेरे उस शरारती बेटे,भाई,दोस्त,रिश्तेदार ऩे 'भूतनी' देखी
थी.वहां से सीधे मन्दिर गई और 'उस सीढ़ी' तक जा कर ही रुकी. ठहरी. फिर सी- टाइप
क्वार्टर्स की ओर बढ़ गई. उस मोर्निंग मैं उसी रास्ते पर ही घूमती रही लगभग
सवा डेढ़ घंटे तक. तब तक लोगों की आवाजाही शुरू हो चुकी थी.
मैंने उन्हें फोन करके बताया कि मैं हमेशा की अपेक्षा आज और भी जल्दी निकल कर
'उसी' रास्ते पर खूब घूमी हूं .
वो ठहाके मारकर हँसे जा रहे थे. दुष्ट ने मुझे जान बूझकर डराया था.
पर....मैं अपने डर को मात दे चुकी थी. वे मुझे आजमा रहे थे और जानबूझ कर भूत
प्रेत की बातें कर रहे थे 'उस दिन'.
वे खूब हँसे. मैंने फिर एक सबक सीखा भय उस जंगली जानवर की तरह होता है जिससे
भागने पर वो पीछा पकड़ लेता है, हावी होने का प्रयास करता है अन्यथा........

8 comments:

  1. टीचर को तो न ऐसी कहानी सुननी चाहिए और न सुनानी ! डर बाई न ? बोलो हा हा हा ...
    स्नेह!

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  2. डर पर ऐसे ही विजय पाई जा सकती है... प्रारम्भ मे मुझे ऊंचाई से डर लगता था... धीरे धीरे तीसरी मंज़िल की छत पर रेलिंग पर चलने का अभ्यास करना शुरू किया और फिर सारा भय गायब... भूतहे खंडहरों मे तो शर्त लगा कर रात बारह बजे जाया करता था। कभी कोई चुड़ैल की बच्ची भी नहीं मिली... मिल गयी होती तो आटोग्राफ जरूर लेकर आता

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  3. मैं भी आप से सहमत हूँ सार्थक लेख के लिए
    आभार

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  4. मैंने और भी खतरनाक तरीकों से भूतों का पीछा किया, लेकिन कहीं मिले ही नहीं...


    पर होने तो चाहिए.. मैं और ट्राइ करूंगा... :)

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  5. भूत हो या भूतनी किसकी मजाल है जो आपके सामने आ जाए……… :)

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